रोज देश में 172 लड़कियां होती है गायब, गजब है लापता लेडीज और कटहल...

समीक्षा, सोशल एक्टिविस्ट
आखिर लापता हुई लड़कियां मिलती क्यों नहीं है वाले सवाल का जवाब थोड़ा इस फ़िल्म में मिला. ज़्यादातर बार, पुलिस केस रजिस्टर ही नहीं करती है, सब ये सोचते है कि इस उम्र में तो लड़कियां भागती है लड़को के साथ.
हॉल में ही आई फ़िल्म, ‘लापता लेडीज़’ ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा. बेहद खूबसूरत किरदारों के साथ, फ़िल्म ने समाज के ढांचे पर एक कड़ी चोट लगाई है. पितृसत्तात्मक सोच कैसे छोटे- छोटे रूप में आ कर बेड़ियों में जकरता है. शसक्तीकरण के असल मायनों को बड़ी खूबसूरती से दिखाया है. फ़िल्म के आख़िर में लापता हुई लेडीज़ अपनी बुद्धि से अपना पता ढूंढ लेती है - पता यानि एड्रेस और खुद की खोई हुई पहचान. ये तो बात हो गई ‘लापता लेडीज़’ के प्लाट की, पर अगर प्लॉट थोड़ी अलग होती तो? अगर लापता हुई लेडीज मिलती ही नहीं तो?
ये बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि नहीं मिल रही है लाखों की तादाद में लापता हुई लड़किया. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड बयूरो 2022 के रिपोर्ट के अनुसार 13.13 लाख लड़कियां और महिलाएं साल 2019 से 2021 के बीच में लापता हुई. मध्यप्रदेश में सबसे ज़्यादा लड़कियां ग़ायब होती है, साल 2019 से 2021 के बीच में 2 लाख लड़कियां लापता हुई. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2022 की रिपोर्ट ये भी कहती है कि हर दिन लगभग 172 लड़कियां लापता होती है भारत देश में, लगभग 170 लड़कियां हर रोज़ किडनैप होती है और लगभग 3 लड़कियों की तस्करी होती हैं. ये तो हुई डेटा की बात पर क्यों होती है ये लड़कियां लापता? और लापता होती भी है तो मिलती क्यों नहीं है? जब फिल्मों की बात से ही हमारी बातचीत शुरू हुई है तो लगे हाथ एक और फ़िल्म का भी ज़िक्र कर लेते है. 2023 में कटहल नाम की एक फ़िल्म आई. लापता लेडीज़ जैसे ही सिंपल फ़िल्म कोई ताम- झाम नहीं पर एक सटीक चोट सिस्टम पर. फ़िल्म में ये दिखाया गया कि कटहल की ज़्यादा अहमियत है लापता लड़कियों से. आखिर लापता हुई लड़कियां मिलती क्यों नहीं है वाले सवाल का जवाब थोड़ा इस फ़िल्म में मिला. ज़्यादातर बार, पुलिस केस रजिस्टर ही नहीं करती है, सब ये सोचते है कि इस उम्र में तो लड़कियां भागती है लड़को के साथ. इसी नेगलिजेंस के कारण न परिवार वाले केस करते है और न पुलिस केस फ़ाइल करती है.
जिस तरह से हर साल लड़कियों के मिसिंग (लापता) होने के केस बढ़ रहे है, उससे लगता है कि हमारा ध्यान आखिर किधर है. साल 2013 में क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट के आ जाने के बाद भी कुछ ख़ास बदलाव दिखा नहीं है. हर साल लिंग आधारित हिंसा के मामले बढ़े ही है बस. सरकार के अनुसार उन्होंने महिला और लड़कियों की सुरक्षा के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए है जैसे कि पूरे देश में एक कॉमन एमरजेंसी नंबर (112) का लाना, महिला हेल्पलाइन , सुरक्षा संबंधित मोबाइल एप्प का लाना, साइबर क्राइम के ख़िलाफ़ सख़्त कदम उठाना आदि. ये कदम निसंदेह बेहद महत्वपूर्ण है पर सवाल ये है कि ये लागू कैसे हो रहा है?महिला सुरक्षा और हिंसा को रोकने के लिए जो लोग काम कर रहे है क्या उनको ये मुद्दा सिरियस लगता है? क्या उनका ध्यान लापता होती लड़कियों पर है? नई नई पॉलिसी, कानून लाने से ज़्यादा ज़रूरी है कि संवेदनशीलता आए मुद्दे को लेकर. अगर ऐसा नहीं हुआ तो ‘लापता लेडीज’ और ‘कटहल’ जैसे फ़िल्म आते जाएंगे. हम उनको क्रिटिकल फ़िल्म का दर्जा देते जाएंगे पर कभी नहीं समझ पाएंगे कि वो फ़िल्म हम पर ही कटाक्ष हैं.
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