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रूरल इंडिया

डाकू पुतलीबाई और राम प्रसाद बिस्मिल के गांव का सच


  • 03/07/2024
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ग्वालियर से मुकेश शर्मा की रिपोर्ट

जिन्होनें देश के लिए अपनी कुर्बानी दी. फांसी तक पर भी चढ़ गये. उन क्रांतिकारियों को याद तो सभी करते हैं, उनकी बातें तो बहुत होती है लेकिन सच तो यह है कि क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के परिजनों को जो जमीन दी गई थी उसपर दबंगों का कब्जा है. सरकार चाहे जिसकी हो उन्हें क्रांतिकारियों से कोई मतलब नहीं. एक खास रिपोर्ट...

24 अप्रैल 2024 की सुबह ग्वालियर से तैयार होकर हमारी टीम आखिरकार दोपहर भर यात्रा करके क्रांतिवीर रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के पैतृक गाँव ‘बरबाई’ पहुंच गई। परिवार का दर्द सुनने के बाद याद आया कि  ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पर मिटने बालों का यही बांकी निशा होगा’ इसके बाद दिल में बात आई में कैसे कहूं ‘शहीद मेव जयते’ देश के लिए कुर्बान हुए कांकोरी घटना के नायकों में एक  क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल के परिवार को सरकार ने सन 1947 में 37 बीघा जमीन का पट्टा दिया था जिसमें से 26 बीघा जमीन आज भी दबंगों के कब्जे में है। दरअसल, यह परिवार शहीद बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर के बड़े भाई का है. 1947 से खेती की इस जमीन पर दबंगों ने कब्जा कर रखा है। इसके लिए बिजेंद्र सिंह तोमर दर-दर भटक रहे हैं. स्थानीय सरकार और अधिकारियों से कई बार इसकी गुहार लगा चुके हैं. लेकिन उनकी फरियाद यहां सुनने वाला कोई नही है. 67 वर्षीय विजेंद्र सिंह तोमर को इसलिए अपने तीनो बच्चों को न पढ़ा पाने का मलाल भी है, बड़ा बेटा अनिल दिल्ली में मजदूरी कर रहा है. वे रुखे गले से बताते हैं कि आजतक फसल नसीब नहीं हुई है. एक बार मुवाअजा मिला था, हमारी माली हालत बहुत खराब है, गरीबी रेखा का राशन कार्ड बने दो साल हुए हैं उसी से राशन मिल रहा है जिससे से गुजारा हो रहा है. मकान आज तक नहीं बन पाया है. जानवर के नाम पर मात्र एक भैंस दरवाजे पर बंधी है. थोड़ी बहुत जो पुश्तैनी जमीन है उसे दूसरे के कुंए से पानी निकाल कर खेत का पेट भरना पड़ता है. आज भी मुफलिसी के आलम में बिस्मिल का यह पुश्तैनी परिवार कच्चे मकान में रहने को अभिशप्त है. न तो प्रशासन उनकी जमीन को छुड़वा पा रहा है और न ही सरकार कोई सुध ले रही है। शहीद का नाम लेने वाले न ही यहां के सियासतदां. मुरैना जिले की अंबाह तहसील का बरबाई गांव क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल का पैतृक गांव है. बिस्मिल अविवाहित थे, लेकिन उनके खानदानी छोटे भाई भीकम सिंह और बड़े भाई कोक सिंह के पुत्र आज भी बरबाई में अपने कच्चे पुश्तैनी मकान में रह रहे हैं. मैनपुरी षड्यंत्र केस में जब रामप्रसाद बिस्मिल पर वारंट जारी हुआ तो वे सुरक्षित ठिकाने की तलाश में चंबल घाटी की गोद में खिंचे चले आए. इस दौरान उन्होने बरबाई में 3 महीने 11 दिन रहकर खेती किसानी में अपने आप को संलग्न कर लिया था.हमने भी दो दिन डेरा बरबाई में जमा लिया था.
पहली महिला डकैत पुतली बाई के गांव में
24 अप्रैल 2024 को सोचा कि बरबाई का जायजा लिया जाय. स्थानीय लोगों ने गांव में एक गली से गुजरने पर बताया गया यह पुतली का घर है. चंबल घाटी के इतिहास में पुतलीबाई का नाम पहली महिला डकैत के रूप में दर्ज है. मुरैना के अम्बाह तहसील के बरबाई गाँव में गरीब मुस्लिम परिवार में जन्मी गौहर बानो को परिवार का पेट पालने के लिए नृत्यांगना बनना पड़ा. 
इस पेशे ने उसे नया नाम दिया-पुतलीबाई. शादी-ब्याह और खुशी के मौकों पर नाचने-गाने वाली खूबसूरत पुतलीबाई पर सुल्ताना डाकू की नजर पड़ी और वह उसे जबरन गिरोह के मनोरंजन के लिए नृत्य करने के लिए अपने पास बुलाने लगा. डाकू सुल्ताना का पुतलीबाई से मेल जोल बढ़ता गया लिहाजा दोनों में प्रेम हो गया. इसके बाद पुतलीबाई ने अपना घर बार छोड़ कर सुल्ताना के साथ बीहड़ों में रहने लगी. सुल्ताना के बाद पुतलाबाई गिरोह की सरदार बनी और 1950 से 1956 तक बीहड़ों में उसका जबरदस्त आतंक रहा. पुतलीबाई पहली ऐसी महिला डकैत थी, जिसने गिरोह के सरदार के रूप में सबसे ज्यादा पुलिस से मुठभेड़ हुई. छोटे कद की दुबली-पतली फुतीर्ली पुतलीबाई एक हाथ से ही राइफल चलाने में महारत हासिल थी. बीहड़ में अपनी निडरता और साहस के लिए जानी जाने वाली डाकू पुतलीबाई 23 जनवरी, 1956 को शिवपुरी के जंगलों में पुलिस इनकांउटर में अपने प्रेमी कल्ला गुर्जर के साथ मारी गई.पुतली का गांव बरबाई का गांव आज भी उसी दौर की याद दिलाता है.कभी यहां 18-20 मुस्लिम परिवार थे जो अब गाँव छोड़ कर पलायन कर गये हैं. यहां मंदिर की जगह में एक तालाब है इस पर भी भूमाफियों की कुदृष्टि पड़ने से कब्जा होते होते सिकुड़ गया है. आज तक इस तालाब का सौंदर्यीकरण नहीं हुआ है. लगता हैं सरकार के नुमाइंदों को यहां जाने की फुर्सत ही कहां है?
बिस्मिल लाइब्रेरी उजड़ गयी
क्रांतिवीर रामप्रसाद बिस्मिल के पैतृक गांव बरवाई में करीब पांच बीघे का शहीद पार्क बना है। जिसमें उनकी प्रतिमा भी लगी है. इस पार्क में अमर शहीद के जन्मदिवस और शहादत दिवस पर विविधि आयोजन हर साल होते हैं जिसमें शहर से भी गणमान्य लोग शामिल हेते हैं। लेकिन शहीद पार्क की दुर्दशा से सभी अनजान हैं. गौरतलब है कि शहीदी पार्क में 30 साल पहले लाइब्रेरी का भवन तामीर हुआ था. जिसकी छत अब जमीन पर गिर चुकी है.इतना ही नहीं आज तक यहाँ कोई एक किताब भी नहीं पहुंची है। जबकि इस गाँव की आबादी करीब 7000 के लगभग बताई जाती है. वैसे बिस्मिल ने अपने जीवन में 11 किताबें लिखी थी. उस दौर में बिस्मिल की कुल आठ मूल पुस्तकें प्रकाशित हो पाई थी और उन्होंने आधा दर्जन बांग्ला व अंग्रेजी पुस्तकों का अनुवाद किया था. यहाँ पर किताबें आज तक न पहुंचना क्रांतिवीर के नाम पर मजाक नहीं तो और क्या है?
    बरबाई में बिस्मिल पार्क की देखभाल करने वाला गार्ड तोमर वहां उपस्थित नहीं मिला. पार्क में लगे हैंडमैंप की मोटर कई सालों से खराब है. इसलिए यहाँ पौधे की सिंचाई भी नहीं हो पा रही है. पानी के अभाव में कई पौधे सूख कर खत्म हो गए हैं। इस पार्क को एक माडल बनाया जा सकता था। अफसोस इसका कोई पुरसा हाल नहीं है. हमने जब उप जिला अधिकारी अंबाह अरविंद माहौर से इस मामले पर उनके मोबाइल पर चर्चा की श्री माहौर ने कहा कि कौन बिस्मिल में नहीं जानता, उनको जब बताया कि अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की बात कर रहा हु तब एस डी एम अरविंद माहौर ने कहा कि मेरे पास बिस्मिल परिवार की कृषि भूमि पर अतिक्रमण की कोई शिकायत नहीं आई आॅफिस में आई होगी, जब पूछा कि आॅफिस के कागज आपतक नहीं आते तो जबाब था कि आॅफिस में आकर मिल तब बताऊंगा. एस डी एम अरविंद माहौर की शहीद के प्रति यह सोच यह दशार्ती है कि अरविंद माहौर या तो अतिक्रमणकारियों से मिले हुए है या मानसिक कुंठा से ग्रसित हैं! वहीं बिस्मिल के परिजन जितेंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि मैं अमर शहीद बिस्मिल जी के भाई का पोता हूं सरकार ने वर्ष 1947 में हमारे परिवार को 37 बीघा भूमि का पट्टा दिया था जिसपर पट्टा दिनांक से आज तक दबंगों का कब्जा है मेरे पिताजी कई वर्षो से एसडीएम,कलैक्टर सहित सभी अधिकारियों के सैकड़ों चक्कर लगा चुके है, उन सभी शिकायतों की कॉपियां मेरे पास हैं तथा सरकार द्वारा दिए गए पट्टे की कॉपी भी है आज तक हमारी न तो किसी अधिकारी ने सुनी और न नेता ने. बस, साल में दो बार हमारे परिवार को शासन प्रशासन याद करता है एक बिस्मिल जी के शहीदी दिवस और एक जन्म दिवस पर परंतु हमारी जमीन आजतक दबंगो के कब्जे से मुक्त नहीं हुई इस वर्ष भी हमारी फसल काट ली किसी ने नहीं सुनी. एसडीएम हमे दुत्कार कर भगा देते हैं. हमारी आर्थिक स्थिति खराब है इसलिए हम आगे की लड़ाई नहीं लड़ सकते.